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असमर्थ युग के समर्थ लेखक मैक्सिम गोर्की की कहानी "करोड़पति कैसे होते हैं"


मैक्सिम गोर्की असमर्थ युग के समर्थ लेखक के रूप में पहचाने जाते हैं।


जन्म के समय अपनी पहली चीख़ के बारे में मैक्सिम गोर्की ने एक जगह स्वयं लिखा है- 'मुझे पूरा यकीन है कि वह चीख घृणा और विरोध की चीख़ रही होगी।'

इस पहली चीख़ की घटना 1868 ई. की 28 मार्च की 2 बजे रात की है लेकिन घृणा और विरोध की यह चीख़ आज इतने वर्ष बाद भी सुनाई दे रही है।मैक्सिम गोर्की ऐसे क्रांतिकारी और युगद्रष्टा लेखक थे जिन्होंने लेखन के माध्यम से ऐसा रच दिया कि आजतक कोई रच नहीं पाया। जीते जी उन्हें जो कीर्ति मिली , जो सम्मान मिला वह किसी अन्य को नहीं मिल पाया। 

 पीड़ा और संघर्ष उनकी रचनाओं का मुख्य कथानक है। यह सब उन्हें विरासत में मिला। उनके पिता बढ़ई थे जो लकड़ी के संदूक बनाया करते थे । उनकी माँ ने अपने माता-पिता की इच्छा के बिरूद्ध विवाह किया था। यह दुर्भाग्य रहा कि मैक्सिम गोर्की सात वर्ष की आयु में ही  अनाथ हो गए। वे माँ की ममता से वंचित रह गए। 

माँ की ममता की लहरों से वंचित हुए गोर्की को वोल्गा की लहरों द्वारा ही बचपन से संरक्षण मिला। शायद इसलिए उनकी 'शैलकश' और अन्य कृतियों में वोल्गा का सजीव चित्रण मिलता है।    

माँ उनका प्रसिद्ध उपन्यास है जिस पर ब्रिटिश काल में प्रतिबंध लगा।  अंतिम उपन्यास 'द लाइफ ऑफ क्लीम समगीन' में गोर्की ने पूँजीवाद, उसके उत्थान और पतन का लेखा प्रस्तुत किया है । इस प्रसिद्ध उपन्यास को लिखने में उन्हें 9 साल लगे। उन्होंने 1927 में लिखना प्रारंभ किया और 1936 में समाप्त किया था।  गोर्की ने अपने देश और विश्व की जनता को फासिज्म की असलियत से परिचित कराया था, इसलिए ट्राटस्की बुखारिन के फासिस्ट गुट ने एक हत्यारे डॉक्टर लेविल की सहायता से 18 जून 1936 को उन्हें जहर देकर मार दिया था। गोर्की की हर कहानियाँ कोई गहरा संदेश देती हैं। इस पूंजीवादी व्यवस्था में उनकी कहानी "करोड़पति कैसे होते हैं" को पढ़ना पाठकों को एक नये अनुभव से भर देता है- 


■ मैक्सिम गोर्की की कहानी 

"करोड़पति कैसे होते हैं"

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संयुक्त राज्य अमेरिका के इस्पात और तेल के सम्राटों और बाकी सम्राटों ने मेरी कल्पना को हमेशा तंग किया है। मैं कल्पना ही नहीं कर सकता कि इतने सारे पैसेवाले लोग सामान्य नश्वर मनुष्य हो सकते हैं।

मुझे हमेशा लगता रहा है कि उनमें से हर किसी के पास कम से कम तीन पेट और डेढ़ सौ दाँत होते होंगे। मुझे यकीन था कि हर करोड़पति सुबह छः बजे से आधी रात तक खाना खाता रहता होगा। यह भी कि वह सबसे महँगे भोजन भकोसता होगा: बत्तखें, टर्की, नन्हे सूअर, मक्खन के साथ गाजर, मिठाइयाँ, केक और तमाम तरह के लज़ीज़ व्यंजन। शाम तक उसके जबड़े इतना थक जाते होंगे कि वह अपने नीग्रो नौकरों को आदेश देता होगा कि वे उसके लिए खाना चबाएँ ताकि वह आसानी से उसे निगल सके। आखिरकार जब वह बुरी तरह थक चुकता होगा, पसीने से नहाया हुआ, उसके नौकर उसे बिस्तर तक लाद कर ले जाते होंगे। और अगली सुबह वह छः बजे जागता होगा अपनी श्रमसाध्य दिनचर्या को दुबारा शुरू करने को।

लेकिन *इतनी ज़बरदस्त मेहनत के बावजूद वह अपनी दौलत पर मिलने वाले ब्याज का आधा भी खर्च नहीं कर पाता होगा।*

निश्चित ही यह एक मुश्किल जीवन होता होगा। लेकिन किया भी क्या जा सकता होगा? करोड़पति होने का फ़ायदा ही क्या अगर आप और लोगों से ज़्यादा खाना न खा सकें?

मुझे लगता था कि उसके अन्तर्वस्त्र बेहतरीन कशीदाकारी से बने होते होंगे। उसके जूतों के तलुवों पर सोने की कीलें ठुकी होती होंगी और हैट की जगह वह हीरों से बनी कोई टोपी पहनता होगा। उसकी जैकेट सबसे महँगी मखमल की बनी होती होगी। वह कम से कम पचास मीटर लम्बी होती होगी और उस पर सोने के कम से कम तीन सौ बटन लगे होते होंगे। छुट्टियों में वह एक के ऊपर एक आठ जैकेटें और छः पतलूनें पहनता होगा। यह सच है कि ऐसा करना अटपटा होने के साथ साथ असुविधापूर्ण भी होता होगा… लेकिन एक करोड़पति जो इतना रईस हो बाकी लोगों जैसे कपड़े कैसे पहन सकता है…

करोड़पति की जेबें एक विशाल गड्ढे जैसी होती होंगी जिनमें वह समूचा चर्च, संसद की इमारत और अन्य छोटी-मोटी ज़रूरतों को रख सकता होगा। लेकिन जहाँ एक तरफ मैं सोचता था कि इन महाशय के पेट की क्षमता किसी बड़े समुद्री जहाज़ के गोदाम जितनी होती होगी मुझे इन साहब की टाँगों पर फिट आने वाली पतलून के आकार की कल्पना करने में थोड़ी हैरानी हुई।अलबत्ता मुझे यकीन था कि वह एक वर्ग मील से कम आकार की रज़ाई के नीचे नहीं सोता होगा। और अगर वह तम्बाकू चबाता होगा तो सबसे नफीस किस्म का और एक बार में एक या दो पाउण्ड से कम नहीं। अगर वह नसवार सूँघता होगा तो एक बार में एक पाउण्ड से कम नहीं। पैसा अपनेआप को खर्च करना चाहता है…

उसकी उँगलियाँ अद्भुत तरीके से संवेदनशील होती होंगी और उनमें अपनी इच्छानुसार लम्बा हो जाने की जादुई ताकत होती होगी: मिसाल के तौर पर वह साइबेरिया में अंकुरित हो रहे एक डॉलर पर न्यूयार्क से निगाह रख सकता था और अपनी सीट से हिले बिना वह बेरिंग स्टेट तक अपना हाथ बढ़ाकर अपना पसन्दीदा फूल तोड़ सकता था।

अटपटी बात यह है कि इस सब के बावजूद मैं इस बात की कल्पना नहीं कर पाया कि इस दैत्य का सिर कैसा होता होगा। मुझे लगा कि वह सिर मांसपेशियों और हड्डियों का ऐसा पिण्ड होता होगा जिसे फ़कत हर एक चीज़ से सोना चूस लेने की इच्छा से प्रेरणा मिलती होगी। लब्बोलुआब यह कि करोड़पति की मेरी छवि एक हद तक अस्पष्ट थी। संक्षेप में कहूँ तो सबसे पहले मुझे दो लम्बी लचीली बाँहें नजर आती थीं। उन्होंने ग्लोब को अपनी लपेट में ले रखा था और उसे अपने मुँह की भूखी गुफा के पास खींच रखा था जो हमारी धरती को चूसता-चबाता जा रहा था: उसकी लालचभरी लार उसके ऊपर टपक रही थी जैसे वह तन्दूर में सिंका कोई स्वादिष्ट आलू हो।

आप मेरे आश्चर्य की कल्पना कर सकते हैं जब एक करोड़पति से मिलने पर मैंने उसे एक निहायत साधारण आदमी पाया।

एक गहरी आरामकुर्सी पर मेरे सामने एक बूढ़ा सिकुड़ा-सा शख्स बैठा हुआ था जिसके झुरीर्दार भूरे हाथ शान्तिपूर्वक उसकी तोंद पर धरे हुए थे। उसके थुलथुल गालों पर करीने से हज़ामत बनायी गयी थी और उसका ढुलका हुआ निचला होंठ बढ़िया बनी हुई उसकी बत्तीसी दिखला रहा था जिसमें कुछेक दांत सोने के थे। उसका रक्तहीन और पतला ऊपरी होंठ उसके दाँतों से चिपका हुआ था और जब वह बोलता था उस ऊपरी होंठ में ज़रा भी गति नहीं होती थी। उसकी बेरंग आँखों के ऊपर भौंहें बिल्कुल नहीं थीं और सूरज में तपे हुए उसके सिर पर एक भी बाल नहीं था। उसे देखकर महसूस होता था कि उसके चेहरे पर थोड़ी और त्वचा होती तो शायद बेहतर होता या लाली लिए हुए वह गतिहीन और मुलायम चेहरा किसी नवजात शिशु के जैसा लगता था। यह तय कर पाना मुश्किल था कि यह प्राणी दुनिया में अभी अभी आया है या यहाँ से जाने की तैयारी में है…

उसकी पोशाक भी किसी साधारण आदमी की ही जैसी थी। उसके बदन पर सोना घड़ी, अँगूठी और दाँतों तक सीमित था। कुल मिलाकर शायद वह आधे पाउण्ड से कम था। आम तौर पर वह यूरोप के किसी कुलीन घर के पुराने नौकर जैसा नज़र आ रहा था…

जिस कमरे में वह मुझसे मिला उसमें सुविधा या सुन्दरता के लिहाज़ से कुछ भी उल्लेखनीय नहीं था। फर्नीचर विशालकाय था पर बस इतना ही था।

उसके फर्नीचर को देखकर लगता था कि कभी-कभी हाथी उसके घर तशरीफ लाया करते थे।

“क्या आप… आप… ही करोड़पति हैं?” अपनी आँखों पर अविश्वास करते हुए मैंने पूछा।

“हाँ, हाँ!” उसने सिर हिलाते हुए जवाब दिया।

मैंने उसकी बात पर विश्वास करने का नाटक किया और फैसला किया कि उसकी गप्प का उसी वक्त इम्तहान ले लूँ।

“आप नाश्ते में कितना गोश्त खा सकते हैं?” मैंने पूछा।

“मैं गोश्त नहीं खाता,” उसने घोषणा की, “बस सन्तरे की एक फाँक, एक अण्डा और चाय का छोटा प्याला…”

बच्चों जैसी उसकी आँखों में धुँधलाए पानी की दो बड़ी बूँदों जैसी चमक आयी और मैं उनमें झूठ का नामोनिशान नहीं देख पा रहा था।

“चलिए ठीक है,” मैंने संशयपूर्वक बोलना शुरू किया। “मैं आपसे विनती करता हूँ कि मुझे ईमानदारी से बताइए कि आप दिन में कितनी बार खाना खाते हैं?”

“दिन में दो बार,” उसने ठण्डे स्वर में कहा। “नाश्ता और रात का खाना। मेरे लिए पर्याप्त होता है। रात को खाने में मैं थोड़ा सूप, थोड़ा चिकन और कुछ मीठा लेता हूँ। कोई फल। एक कप कॉफी। एक सिगार…”

मेरा आश्चर्य कद्दू की तरह बढ़ रहा था। उसने मुझे सन्तों की-सी निगाह से देखा। मैं साँस लेने को ठहरा और फिर पूछना शुरू कियाः

“लेकिन अगर यह सच है तो आप अपने पैसे का क्या करते हैं?”

उसने अपने कन्धों को ज़रा उचकाया और उसकी आँखें अपने गड्ढों में कुछ देर लुढ़कीं और उसने जवाब दियाः

“मैं उसका इस्तेमाल और पैसा बनाने में करता हूँ…”

“किस लिए?”

“ताकि मैं और अधिक पैसा बना सकूँ…”

“लेकिन किसलिए?” मैंने हठपूर्वक पूछा।

वह आगे की तरफ झुका और अपनी कोहनियों को कुर्सी के हत्थे पर टिकाते हुए तनिक उत्सुकता से पूछाः

“क्या आप पागल हैं?”

“क्या आप पागल हैं?” मैंने पलटकर जवाब दिया।

बूढ़े ने अपना सिर झुकाया और सोने के दाँतों के बीच से धीरे-धीरे बोलना शुरू कियाः

“तुम बड़े दिलचस्प आदमी हो… मुझे याद नहीं पड़ता मैं कभी तुम्हारे जैसे आदमी से मिला हूँ…”

उसने अपना सिर उठाया और अपने मुँह को करीब-करीब कानों तक फैलाकर ख़ामोशी के साथ मेरा मुआयना करना शुरू किया। उसके शान्त व्यवहार को देख कर लगता था कि स्पष्टतः वह अपनेआप को सामान्य आदमी समझता था। मैंने उसकी टाई पर लगी एक पिन पर जड़े छोटे-से हीरे को देखा। अगर वह हीरा जूते की एड़ी जितना बड़ा होता तो मैं शायद जान सकता था कि मैं कहाँ बैठा हूँ।

“और अपने खुद के साथ आप क्या करते हैं?”

“मैं पैसा बनाता हूँ।” अपने कन्धों को तनिक फैलाते हुए उसने जवाब दिया।

“यानी आप नकली नोटों का धन्धा करते हैं” मैं ख़ुश होकर बोला मानो मैं रहस्य पर से परदा उठाने ही वाला हूँ। लेकिन इस मौके पर उसे हिचकियाँ आनी शुरू हो गयीं। उसकी सारी देह हिलने लगी जैसे कोई अदृश्य हाथ उसे गुदगुदी कर रहा हो। वह अपनी आँखों को तेज़-तेज़ झपकाने लगा।

“यह तो मसखरापन है,” ठण्डा पड़ते हुए उसने कहा और मेरी तरफ एक सन्तुष्ट निगाह डाली। “मेहरबानी कर के मुझसे कोई और बात पूछिए,” उसने निमंत्रित करते हुए कहा और किसी वजह से अपने गालों को जरा सा फुलाया।

मैंने एक पल को सोचा और निश्चित आवाज़़ में पूछाः

“और आप पैसा कैसे बनाते हैं?”

“अरे हाँ! ये ठीकठाक बात हुई!” उसने सहमति में सिर हिलाया। “बड़ी साधारण-सी बात है। मैं रेलवे का मालिक हूँ। किसान माल पैदा करते हैं। मैं उनका माल बाजार में पहुँचाता हूँ। आपको बस इस बात का हिसाब लगाना होता है कि आप किसान के वास्ते बस इतना पैसा छोड़ें कि वह भूख से न मर जाये और आपके लिए काम करता रहे। बाकी का पैसा मैं किराये के तौर पर अपनी जेब में डाल लेता हूँ। बस इतनी-सी बात है।”

“और क्या किसान इससे सन्तुष्ट रहते हैं?”

“मेरे ख्याल से सारे नहीं रहते!” बालसुलभ साधारणता के साथ वह बोला “लेकिन वो कहते हैं ना, लोग कभी सन्तुष्ट नहीं होते। ऐसे पागल लोग आपको हर जगह मिल जायेंगे जो बस शिकायत करते रहते हैं…”

“तो क्या सरकार आपसे कुछ नहीं कहती?” आत्मविश्वास की कमी के बावजूद मैंने पूछा।

“सरकार?” उसकी आवाज़ थोड़ा गूँजी फिर उसने कुछ सोचते हुए अपने माथे पर उँगलियाँ फिरायीं। फिर उसने अपना सिर हिलाया जैसे उसे कुछ याद आया होः “अच्छा… तुम्हारा मतलब है वो लोग… जो वाशिंगटन में बैठते हैं? ना वो मुझे तंग नहीं करते। वो अच्छे बन्दे हैं… उनमें से कुछ मेरे क्लब के सदस्य भी हैं। लेकिन उनसे बहुत ज़्यादा मुलाकात नहीं होती… इसी वजह से कभी-कभी मैं उनके बारे में भूल जाता हूँ। ना वो मुझे तंग नहीं करते।” उसने अपनी बात दोहरायी और मेरी तरफ उत्सुकता से देखते हुए पूछाः

“क्या आप कहना चाह रहे हैं कि ऐसी सरकारें भी होती हैं जो लोगों को पैसा बनाने से रोकती हैं?”

मुझे अपनी मासूमियत और उसकी बुद्धिमत्ता पर कोफ्त हुई।

“नहीं,” मैंने धीमे से कहा “मेरा ये मतलब नहीं था… देखिए सरकार को कभी-कभी तो सीधी-सीधी डकैती पर लगाम लगानी चाहिए ना…”

“अब देखिए!” उसने आपत्ति की। “ये तो आदर्शवाद हो गया। यहाँ यह सब नहीं चलता। व्यक्तिगत कार्यों में दखल देने का सरकार को कोई हक नहीं…”

उसकी बच्चों जैसी बुद्धिमत्ता के सामने मैं खुद को बहुत छोटा पा रहा था।

“लेकिन अगर एक आदमी कई लोगों को बर्बाद कर रहा हो तो क्या वह व्यक्तिगत काम माना जायेगा?” मैंने विनम्रता के साथ पूछा।

“बबार्दी?” आँखें फैलाते हुए उसने जवाब देना शुरू किया। “बर्बादी का मतलब होता है जब मज़दूरी की दरें ऊँची होने लगें। या जब हड़ताल हो जाये। लेकिन हमारे पास आप्रवासी लोग हैं। वो ख़ुशी-ख़ुशी कम मज़दूरी पर हड़तालियों की जगह काम करना शुरू कर देते हैं। जब हमारे मुल्क में बहुत सारे ऐसे आप्रवासी हो जायेंगे जो कम पैसे पर काम करें और ख़ूब सारी चीजें ख़रीदें तब सब कुछ ठीक हो जायेगा।”

वह थोड़ा-सा उत्तेजित हो गया था और एक बच्चे और बूढ़े के मिश्रण से कुछ कम नज़र आने लगा था। उसकी पतली भूरी उँगलियाँ हिलीं और उसकी रूखी आवाज़ मेरे कानों पर पड़पड़ाने लगीः

“सरकार? ये वास्तव में दिलचस्प सवाल है। एक अच्छी सरकार का होना महत्वपूर्ण है। उसे इस बात का ख़्याल रहता है कि इस देश में उतने लोग हों जितनों की मुझे ज़रूरत है और जो उतना ख़रीद सकें जितना मैं बेचना चाहता हूँ; और मज़दूर बस उतने हों कि मेरा काम कभी न थमे। लेकिन उससे ज़्यादा नहीं! फिर कोई समाजवादी नहीं बचेंगे। और हड़तालें भी नहीं होंगी। और सरकार को बहुत ज़्यादा टैक्स भी नहीं लगाने चाहिए। लोग जो देना चाहें वह ले ले। इसको मैं कहता हूँ अच्छी सरकार।”

“वह बेवकूफ़ नहीं है। यह एक तयशुदा संकेत है कि उसे अपनी महानता का भान है।” मैं सोच रहा था। “इस आदमी को वाकई राजा ही होना चाहिए…”

“मैं चाहता हूँ,” वह स्थिर और विश्वासभरी आवाज़ में बोलता गया “कि इस मुल्क में अमन-चैन हो। सरकार ने तमाम दार्शनिकों को भाड़े पर रखा हुआ है जो हर इतवार को कम से कम आठ घण्टे लोगों को यह सिखाने में ख़र्च करते हैं कि क़ानून की इज़्ज़त की जानी चाहिए। और अगर दार्शनिकों से यह काम नहीं होता तो सरकार फौज बुला लेती है। तरीका नहीं बल्कि नतीजा ज़्यादा महत्वपूर्ण होता है। ग्राहक और मज़दूर को कानून की इज़्ज़त करना सिखाया जाना चाहिए। बस!” अपनी उँगलियों से खेलते हुए उसने अपनी बात पूरी की।

“और धर्म के बारे में आप का क्या ख्याल है?” अब मैंने प्रश्न किया जबकि वह अपना राजनीतिक दृष्टिकोण स्पष्ष्ट कर चुका था।

“अच्छा!” उसने उत्तेजना के साथ अपने घुटनों को थपथपाया और बरौनियों को झपकाते हुए कहा: “मैं इस बारे में भली बातें सोचता हूँ। लोगों के लिए धर्म बहुत ज़रूरी है। इस बात पर मेरा पूरा यकीन है। सच बताऊँ तो मैं ख़ुद इतवारों को चर्च में भाषण दिया करता हूँ… बिल्कुल सच कह रहा हूँ आपसे।”

“और आप क्या कहते हैं अपने भाषणों में?” मैंने सवाल किया।

“वही सब जो एक सच्चा ईसाई चर्च में कह सकता है!” उसने बहुत विश्वस्त होकर कहा। “देखिए मैं एक छोटे चर्च में भाषण देता हूँ और ग़रीब लोगों को हमेशा दयापूर्ण शब्दों और पितासदृश सलाह की ज़रूरत होती है… मैं उनसे कहता हूँ…”

“ईसामसीह के बन्दो! ईर्ष्या के दैत्य के लालच से खुद को बचाओ और दुनियादारी से भरी चीज़ों को त्याग दो। इस धरती पर जीवन संक्षिप्त होता है: बस चालीस की आयु तक आदमी अच्छा मज़दूर बना रह सकता है। चालीस के बाद उसे फैक्ट्रियों में रोज़गार नहीं मिल सकता। जीवन कतई सुरक्षित नहीं है। काम के वक्त आपके हाथों की एक गलत हरकत और मशीन आपकी हड्डियों को कुचल सकती है। लू लग गयी और आपकी कहानी खत्म हो सकती है। हर कदम पर बीमारी और दुर्भाग्य कुत्ते की तरह आपका पीछा करते रहते हैं। एक ग़रीब आदमी किसी ऊँची इमारत की छत पर खड़े अन्धे आदमी जैसा होता है। वह जिस दिशा में जायेगा अपने विनाश में जा गिरेगा जैसा जूड के भाई फरिश्ते जेम्स ने हमें बताया है। भाइयो, आप को दुनियावी चीज़ों से बचना चाहिए। वह मनुष्य को तबाह करने वाले शैतान का कारनामा है। ईसामसीह के प्यारे बच्चो, तुम्हारा साम्राज्य तुम्हारे परमपिता के साम्राज्य जैसा है। वह स्वर्ग में है। और अगर तुम में धैर्य होगा और तुम अपने जीवन को बिना शिकायत किये, बिना हल्ला किये बिताओगे तो वह तुम्हें अपने पास बुलायेगा और इस धरती पर तुम्हारी कड़ी मेहनत के परिणाम के बदले तुम्हें ईनाम में स्थाई शान्ति बख़्शेगा। यह जीवन तुम्हारी आत्मा की शुद्धि के लिए दिया गया है और जितना तुम इस जीवन में सहोगे उतना ज़्यादा आनन्द तुम्हें मिलेगा जैसा कि ख़ुद फरिश्ते जूड ने बताया है।”

उसने छत की तरफ इशारा किया और कुछ देर सोचने के बाद ठण्डी और कठोर आवाज़ में कहाः

“हाँ, मेरे प्यारे भाइयो और बहनो, अगर आप अपने पड़ोसी के लिए चाहे वह कोई भी हो, इसे कुर्बान नहीं करते तो यह जीवन खोखला और बिल्कुल साधारण है। ईर्ष्या के राक्षस के सामने अपने दिलों को समर्पित मत करो। किस चीज से ईर्ष्या करोगे? जीवन के आनन्द बस धोखा होते हैं; राक्षस के खिलौने। हम सब मारे जायेंगे। अमीर और ग़रीब, राजा और कोयले की खान में काम करने वाले मज़दूर, बैंकर और सड़क पर झाड़ू लगाने वाले। यह भी हो सकता है कि स्वर्ग के उपवन में आप राजा बन जायें और राजा झाड़ू लेकर रास्ते से पत्तियाँ साफ कर रहा हो और आपकी खायी हुई मिठाइयों के छिलके बुहार रहा हो। भाइयो, यहाँ इस धरती पर इच्छा करने को है ही क्या? पाप से भरे इस घने जंगल में जहाँ आत्मा बच्चों की तरह पाप करती रहती है। प्यार और विनम्रता का रास्ता चुनो और जो तुम्हारे नसीब में आता है उसे सहन करो। अपने साथियों को प्यार दो, उन्हें भी जो तुम्हारा अपमान करते हैं…”

उसने फिर से आँखें बन्द कर लीं और अपनी कुर्सी पर आराम से हिलते हुए बोलना जारी रखाः

“ईर्ष्या की उन पापी भावनाओं और लोगों की बात पर ज़रा भी कान न दो जो तुम्हारे सामने किसी की ग़रीबी और किसी दूसरे की सम्पन्नता का विरोधाभास दिखाती हैं। ऐसे लोग शैतान के कारिन्दे होते हैं। अपने पड़ोसी से ईर्ष्या करने से भगवान ने तुम्हें मना किया हुआ है। अमीर लोग भी निर्धन होते हैं: प्रेम के मामले में। ईसामसीह के भाई जूड ने कहा था अमीरों से प्यार करो क्योंकि वे ईश्वर के चहेते हैं। समानता की कहानियों और शैतान की बाकी बातों पर जरा भी ध्यान मत दो। इस धरती पर क्या होती है समानता? आपको अपने ईश्वर के सम्मुख एक-दूसरे के साथ अपनी आत्मा की शुद्धता की बराबरी करनी चाहिए। धैर्य के साथ अपनी सलीब धारण करो और आज्ञापालन करने से तुम्हारा बोझ हल्का हो जायेगा। ईश्वर तुम्हारे साथ है मेरे बच्चो और तुम्हें उसके अलावा किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं है!”

बूढ़ा चुप हुआ और उसने अपने होंठों को फैलाया। उसके सोने के दाँत चमके और वह विजयी मुद्रा में मुझे देखने लगा। “आपने धर्म का बढ़िया इस्तेमाल किया,” मैंने कहा। “हाँ बिल्कुल ठीक! मुझे उसकी कीमत पता है।” वह बोला, “मैं अपनी बात दोहराता हूँ कि गरीबों के लिए धर्म बहुत ज़रूरी है। मुझे अच्छा लगता है यह। यह कहता है कि इस धरती पर सारी चीजें शैतान की हैं। और ऐ इन्सान, अगर तू अपनी आत्मा को बचाना चाहता है तो यहाँ धरती पर किसी भी चीज़ को छूने तक की इच्छा मत कर। जीवन के सारे आनन्द तुझे मौत के बाद मिलेंगे। स्वर्ग की हर चीज़ तेरी है। जब लोग इस बात पर विश्वास करते हैं तो उन्हें सम्हालना आसान हो जाता है। हाँ, धर्म एक चिकनाई की तरह होता है। और जीवन की मशीन को हम इससे चिकना बनाते रहें तो सारे पुर्जे ठीकठाक काम करते रहते हैं और मशीन चलाने वाले के लिए आसानी होती है…”

“यह आदमी वाकई में राजा है,” मैंने फैसला किया।

“शायद आप विज्ञान के बारे में कुछ कहना चाहेंगे?” मैंने शान्ति से सवाल किया।

“विज्ञान?” उसने अपनी एक उँगली छत की तरफ उठायी। फिर उसने अपनी घड़ी बाहर निकाली, समय देखा और उसकी चेन को अपनी उँगली पर लपेटते हुए उसे हवा में उछाल दिया। फिर उसने एक आह भरी और कहना शुरू किया:

“विज्ञान… हाँ मुझे मालूम है। किताबें। अगर वे अमेरिका के बारे में अच्छी बातें करती हैं तो वे उपयोगी हैं। मेरा विचार है कि ये कवि लोग जो किताबें-विताबें लिखते हैं बहुत कम पैसा बना पाते हैं। ऐसे देश में जहाँ हर कोई अपने धन्धे में लगा हुआ है किताबें पढ़ने का समय किसी के पास नहीं है…। हाँ और ये कवि लोग ग़ुस्से में आ जाते हैं कि कोई उनकी किताबें नहीं खरीदता। सरकार को लेखकों को ठीकठाक पैसा देना चाहिए। बढ़िया खाया-पिया आदमी हमेशा ख़ुश और दयालु होता है। अगर अमेरिका के बारे में किताबें वाकई ज़रूरी हैं तो अच्छे कवियों को भाड़े पर लगाया जाना चाहिए और अमरीका की ज़रूरत की किताबें बनायी जानी चाहिए… और क्या।”

“विज्ञान की आपकी परिभाषा बहुत संकीर्ण है।” मैंने विचार करते हुए कहा।

उसने आँखें बन्द कीं और विचारों में खो गया। फिर आँखें खोलकर उसने आत्मविश्वास के साथ बोलना शुरू किया:

“हाँ, हाँ… अध्यापक और दार्शनिक… वह भी विज्ञान होता है। मैं जानता हूँ प्रोफेसर, दाइयाँ, दाँतों के डाक्टर, ये सब। वकील, डाक्टर, इंजीनियर। ठीक है, ठीक है। वो सब ज़रूरी हैं। अच्छे विज्ञान को ख़राब बातें नहीं सिखानी चाहिए। लेकिन मेरी बेटी के अध्यापक ने एक बार मुझे बताया था कि सामाजिक विज्ञान भी कोई चीज़ है…। ये बात मेरी समझ में नहीं आयी…। मेरे ख्याल से ये नुकसानदेह चीजें हैं। एक समाजशास्त्री अच्छे विज्ञान की रचना नहीं कर सकता। उनका विज्ञान से कुछ लेना-देना नहीं होता। एडीसन बना रहा है ऐसा विज्ञान जो उपयोगी है। फोनोगाफ और सिनेमा – वह उपयोगी है। लेकिन विज्ञान की इतनी सारी किताबें? ये तो हद है। लोगों को उन किताबों को नहीं पढ़ना चाहिए जिनसे उनके दिमागों में सन्देह पैदा होने लगें। इस धरती पर सब कुछ वैसा ही है जैसा होना चाहिए और उस सबको किताबों के साथ नहीं गड़बड़ाया जाना चाहिए।”

मैं खड़ा हो गया।

“अच्छा तो आप जा रहे हैं?”

“हाँ,” मैंने कहा “लेकिन शायद चूँकि अब मैं जा रहा हूँ क्या आप मुझे बता सकते हैं करोड़पति होने का मतलब क्या है?”

उसे हिचकियाँ आने लगीं और वह अपने पैर पटकने लगा। शायद यह उसके हँसने का तरीका था।

“यह एक आदत होती है,” जब उसकी साँस आयी तो वह ज़ोर से बोला।

“आदत क्या होती है?” मैंने सवाल किया।

“करोड़पति होना… एक आदत होती है भाई!”

कुछ देर सोचने के बाद मैंने अपना आखिरी सवाल पूछाः

“तो आप समझते हैं कि सारे आवारा, नशेड़ी और करोड़पति एक ही तरह के लोग होते हैं?”

इस बात से उसे चोट पहुँची होगी। उसकी आँखें बड़ी हुईं और गुस्से ने उन्हें हरा बना दिया।

“मेरे ख़्याल से तुम्हारी परवरिश ठीकठाक नहीं हुई है।” उसने ग़ुस्से में कहा।

“अलविदा,” मैंने कहा।

वह विनम्रता के साथ मुझे पोर्च तक छोड़ने आया और सीढ़ियों के ऊपर अपने जूतों को देखता खड़ा रहा। उसके घर के आगे एक लॉन था जिस पर बढ़िया छँटी हुई घनी घास थी। मैं यह विचार करता हुआ लॉन पर चल रहा था कि शुक्र है मुझे इस आदमी से फिर कभी नहीं मिलना पड़ेगा। तभी मुझे पीछे से आवाज़ सुनायी दी:

“सुनिए!”

मैं पलटा। वह वहीं खड़ा था और मुझे देख रहा था।

“क्या यूरोप में आपके पास ज़रूरत से ज़्यादा राजा हैं?” उसने धीरे-धीरे पूछा।

“अगर आप मेरी राय जानना चाहते हैं तो हमें उनमें से एक की भी ज़रूरत नहीं है।” मैंने जवाब दिया।

वह एक तरफ को गया और उसने वहीं थूक दिया।

“मैं अपने लिए दो-एक राजाओं को किराये पर रखने की सोच रहा हूँ,” वह बोला। “आप क्या सोचते हैं?”

“लेकिन किसलिए?”

“बड़ा मज़ेदार रहेगा। मैं उन्हें आदेश दूँगा कि वे यहाँ पर मुक्केबाज़ी करके दिखाएँ…”

उसने लॉन की तरफ इशारा किया और पूछताछ के लहजे में बोला:

“हर रोज एक से डेढ़ बजे तक। कैसा रहेगा? दोपहर के खाने के बाद कुछ देर कला के साथ समय बिताना अच्छा रहेगा… बहुत ही बढ़िया।”

वह ईमानदारी से बोल रहा था और मुझे लगा कि अपनी इच्छा पूरी करने के लिए वह कुछ भी कर सकता है।

“लेकिन इस काम के लिए राजा ही क्यों?”

“क्योंकि आज तक किसी ने इस बारे में नहीं सोचा” उसने समझाया।

“लेकिन राजाओं को तो खुद दूसरों को आदेश देने की आदत पड़ी होती है” इतना कहकर मैं चल दिया।

“सुनिए तो,” उसने मुझे फिर से पुकारा।

मैं फिर से ठहरा। अपनी जेबों में हाथ डाले वह अब भी वहीं खड़ा था। उसके चेहरे पर किसी स्वप्न का भाव था।

उसने अपने होंठों को हिलाया जैसे कुछ चबा रहा हो और धीमे से बोला:

“तीन महीने के लिए दो राजाओं को एक से डेढ़ बजे तक मुक्केबाज़ी करवाने में कितना खर्च आयेगा आपके विचार से?”



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कौन हैं ओमा द अक और इनदिनों क्यों चर्चा में हैं।

आज अनुग्रह के पाठकों से हम ऐसे शख्स का परिचय कराने जा रहे हैं जो इन दिनों देश के बुद्धिजीवियों के बीच खासा चर्चे में हैं। आखिर उनकी चर्चा क्यों हो रही है इसको जानने के लिए इस आलेख को पढ़ा जाना जरूरी है। किताब: महंगी कविता, कीमत पच्चीस हजार रूपये  आध्यात्मिक विचारक ओमा द अक् का जन्म भारत की आध्यात्मिक राजधानी काशी में हुआ। महिलाओं सा चेहरा और महिलाओं जैसी आवाज के कारण इनको सुनते हुए या देखते हुए भ्रम होता है जबकि वे एक पुरुष संत हैं । ये शुरू से ही क्रान्तिकारी विचारधारा के रहे हैं । अपने बचपन से ही शास्त्रों और पुराणों का अध्ययन प्रारम्भ करने वाले ओमा द अक विज्ञान और ज्योतिष में भी गहन रुचि रखते हैं। इन्हें पारम्परिक शिक्षा पद्धति (स्कूली शिक्षा) में कभी भी रुचि नहीं रही ।  इन्होंने बी. ए. प्रथम वर्ष उत्तीर्ण करने के पश्चात ही पढ़ाई छोड़ दी किन्तु उनका पढ़ना-लिखना कभी नहीं छूटा। वे हज़ारों कविताएँ, सैकड़ों लेख, कुछ कहानियाँ और नाटक भी लिख चुके हैं। हिन्दी और उर्दू में  उनकी लिखी अनेक रचनाएँ  हैं जिनमें से कुछ एक देश-विदेश की कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुक...

जैनेंद्र कुमार की कहानी 'अपना अपना भाग्य' और मन में आते जाते कुछ सवाल

कहानी 'अपना अपना भाग्य' की कसौटी पर समाज का चरित्र कितना खरा उतरता है इस विमर्श के पहले जैनेंद्र कुमार की कहानी अपना अपना भाग्य पढ़ते हुए कहानी में वर्णित भौगोलिक और मौसमी परिस्थितियों के जीवंत दृश्य कहानी से हमें जोड़ते हैं। यह जुड़ाव इसलिए घनीभूत होता है क्योंकि हमारी संवेदना उस कहानी से जुड़ती चली जाती है । पहाड़ी क्षेत्र में रात के दृश्य और कड़ाके की ठंड के बीच एक बेघर बच्चे का शहर में भटकना पाठकों के भीतर की संवेदना को अनायास कुरेदने लगता है। कहानी अपने साथ कई सवाल छोड़ती हुई चलती है फिर भी जैनेंद्र कुमार ने इन दृश्यों, घटनाओं के माध्यम से कहानी के प्रवाह को गति प्रदान करने में कहानी कला का बखूबी उपयोग किया है। कहानीकार जैनेंद्र कुमार  अभावग्रस्तता , पारिवारिक गरीबी और उस गरीबी की वजह से माता पिता के बीच उपजी बिषमताओं को करीब से देखा समझा हुआ एक स्वाभिमानी और इमानदार गरीब लड़का जो घर से कुछ काम की तलाश में शहर भाग आता है और समाज के संपन्न वर्ग की नृशंस उदासीनता झेलते हुए अंततः रात की जानलेवा सर्दी से ठिठुर कर इस दुनिया से विदा हो जाता है । संपन्न समाज ऎसी घटनाओं को भाग्य से ज...

रायगढ़ के राजाओं का शिकारगाह उर्फ रानी महल raigarh ke rajaon ka shikargah urf ranimahal.

  रायगढ़ के चक्रधरनगर से लेकर बोईरदादर तक का समूचा इलाका आज से पचहत्तर अस्सी साल पहले घने जंगलों वाला इलाका था । इन दोनों इलाकों के मध्य रजवाड़े के समय कई तालाब हुआ करते थे । अमरैयां , बाग़ बगीचों की प्राकृतिक संपदा से दूर दूर तक समूचा इलाका समृद्ध था । घने जंगलों की वजह से पशु पक्षी और जंगली जानवरों की अधिकता भी उन दिनों की एक ख़ास विशेषता थी ।  आज रानी महल के नाम से जाना जाने वाला जीर्ण-शीर्ण भवन, जिसकी चर्चा आगे मैं करने जा रहा हूँ , वर्तमान में वह शासकीय कृषि महाविद्यालय रायगढ़ के निकट श्रीकुंज से इंदिरा विहार की ओर जाने वाली सड़क के किनारे एक मोड़ पर मौजूद है । यह भवन वर्तमान में जहाँ पर स्थित है वह समूचा क्षेत्र अब कृषि विज्ञान अनुसन्धान केंद्र के अधीन है । उसके आसपास कृषि महाविद्यालय और उससे सम्बद्ध बालिका हॉस्टल तथा बालक हॉस्टल भी स्थित हैं । यह समूचा इलाका एकदम हरा भरा है क्योंकि यहाँ कृषि अनुसंधान केंद्र के माध्यम से लगभग सौ एकड़ में धान एवं अन्य फसलों की खेती होती है।यहां के पुराने वासिंदे बताते हैं कि रानी महल वाला यह इलाका सत्तर अस्सी साल पहले एकदम घनघोर जंगल हुआ करता था ...

छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक राजधानी रायगढ़ - डॉ. बलदेव

अब आप नहीं हैं हमारे पास, कैसे कह दूं फूलों से चमकते  तारों में  शामिल होकर भी आप चुपके से नींद में  आते हैं  जब सोता हूँ उड़ेल देते हैं ढ़ेर सारा प्यार कुछ मेरी पसंद की  अपनी कविताएं सुनाकर लौट जाते हैं  पापा और मैं फिर पहले की तरह आपके लौटने का इंतजार करता हूँ           - बसन्त राघव  आज 6 अक्टूबर को डा. बलदेव की पुण्यतिथि है। एक लिखने पढ़ने वाले शब्द शिल्पी को, लिख पढ़ कर ही हम सघन रूप में याद कर पाते हैं। यही परंपरा है। इस तरह की परंपरा का दस्तावेजीकरण इतिहास लेखन की तरह होता है। इतिहास ही वह जीवंत दस्तावेज है जिसके माध्यम से आने वाली पीढ़ियां अपने पूर्वज लेखकों को जान पाती हैं। किसी महत्वपूर्ण लेखक को याद करना उन्हें जानने समझने का एक जरुरी उपक्रम भी है। डॉ बलदेव जिन्होंने यायावरी जीवन के अनुभवों से उपजीं महत्वपूर्ण कविताएं , कहानियाँ लिखीं।आलोचना कर्म जिनके लेखन का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा। उन्हीं के लिखे समाज , इतिहास और कला विमर्श से जुड़े सैकड़ों लेख , किताबों के रूप में यहां वहां लोगों के बीच आज फैले हुए हैं। विच...

गंगाधर मेहेर : ओड़िया के लीजेंड कवि gangadhar meher : odiya ke legend kavi

हम हिन्दी में पढ़ने लिखने वाले ज्यादातर लोग हिंदी के अलावा अन्य भाषाओं के कवियों, रचनाकारों को बहुत कम जानते हैं या यह कहूँ कि बिलकुल नहीं जानते तो भी कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी ।  इसका एहसास मुझे तब हुआ जब ओड़िसा राज्य के संबलपुर शहर में स्थित गंगाधर मेहेर विश्वविद्यालय में मुझे एक राष्ट्रीय संगोष्ठी में बतौर वक्ता वहां जाकर बोलने का अवसर मिला ।  2 और 3  मार्च 2019 को आयोजित इस दो दिवसीय संगोष्ठी में शामिल होने के बाद मुझे इस बात का एहसास हुआ कि जिस शख्श के नाम पर इस विश्वविद्यालय का नामकरण हुआ है वे ओड़िसा राज्य के ओड़िया भाषा के एक बहुत बड़े कवि हुए हैं और उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से  ओड़िसा राज्य को देश के नक़्शे में थोड़ा और उभारा है। वहां जाते ही इस कवि को जानने समझने की आतुरता मेरे भीतर बहुत सघन होने लगी।वहां जाकर यूनिवर्सिटी के अध्यापकों से , वहां के विद्यार्थियों से गंगाधर मेहेर जैसे बड़े कवि की कविताओं और उनके व्यक्तित्व के बारे में जानकारी जुटाना मेरे लिए बहुत जिज्ञासा और दिलचस्पी का बिषय रहा है। आज ओड़िया भाषा के इस लीजेंड कवि पर अपनी बात रखते हुए मुझे जो खु...

तीन महत्वपूर्ण कथाकार राजेन्द्र लहरिया, मनीष वैद्य, हरि भटनागर की कहानियाँ ( कथा संग्रह सताईस कहानियाँ से, संपादक-शंकर)

  ■राजेन्द्र लहरिया की कहानी : "गंगा राम का देश कहाँ है" --–-----------------------------  हाल ही में किताब घर प्रकाशन से प्रकाशित महत्वपूर्ण कथा संग्रह 'सत्ताईस कहानियाँ' आज पढ़ रहा था । कहानीकार राजेंद्र लहरिया की कहानी 'गंगा राम का देश कहाँ है' इसी संग्रह में है। सत्ता तंत्र, समाज और जीवन की परिस्थितियाँ किस जगह जा पहुंची हैं इस पर सोचने वाले अब कम लोग(जिसमें अधिकांश लेखक भी हैं) बचे रह गए हैं। रेल की यात्रा कर रहे सर्वहारा समाज से आने वाले गंगा राम के बहाने रेल यात्रा की जिस विकट स्थितियों का जिक्र इस कहानी में आता है उस पर सोचना लोगों ने लगभग अब छोड़ ही दिया है। आम आदमी की यात्रा के लिए भारतीय रेल एकमात्र सहारा रही है। उस रेल में आज स्थिति यह बन पड़ी है कि जहां एसी कोच की यात्रा भी अब सुगम नहीं रही ऐसे में यह विचारणीय है कि जनरल डिब्बे (स्लीपर नहीं) में यात्रा करने वाले गंगाराम जैसे यात्रियों की हालत क्या होती होगी जहाँ जाकर बैठने की तो छोडिये खड़े होकर सांस लेने की भी जगह बची नहीं रह गयी है। साधन संपन्न लोगों ने तो रेल छोड़कर अपनी निजी गाड़ियों के जरिये सड़क मा...

समकालीन कहानी के केंद्र में इस बार: नर्मदेश्वर की कहानी : चौथा आदमी। सारा रॉय की कहानी परिणय । विनीता परमार की कहानी : तलछट की बेटियां

यह चौथा आदमी कौन है? ■नर्मदेश्वर की कहानी : चौथा आदमी नर्मदेश्वर की एक कहानी "चौथा आदमी" परिकथा के जनवरी-फरवरी 2020 अंक में आई थी ।आज उसे दोबारा पढ़ने का अवसर हाथ लगा। नर्मदेश्वर, शंकर और अभय के साथ के कथाकार हैं जो सन 80 के बाद की पीढ़ी के प्रतिभाशाली कथाकारों में गिने जाते हैं। दरअसल इस कहानी में यह चौथा आदमी कौन है? इस आदमी के प्रति पढ़े लिखे शहरी मध्यवर्ग के मन में किस प्रकार की धारणाएं हैं? किस प्रकार यह आदमी इस वर्ग के शोषण का शिकार जाने अनजाने होता है? किस तरह यह चौथा आदमी किसी किये गए उपकार के प्रति हृदय से कृतज्ञ होता है ? समय आने पर किस तरह यह चौथा आदमी अपनी उपयोगिता साबित करता है ? उसकी भीतरी दुनियाँ कितनी सरल और सहज होती है ? यह दुनियाँ के लिए कितना उपयोगी है ? इन सारे सवालों को यह छोटी सी कहानी अपनी पूरी संवेदना और सम्प्रेषणीयता के साथ सामने रखती है। कहानी बहुत छोटी है,जिसमें जंगल की यात्रा और पिकनिक का वर्णन है । इस यात्रा में तीन सहयात्री हैं, दो वरिष्ठ वकील और उनका जूनियर विनोद ।यात्रा के दौरान जंगल के भीतर चौथा आदमी कन्हैया यादव उन्हें मिलता है जो वर्मा वकील स...

रघुनंदन त्रिवेदी की कहानी : हम दोनों

स्व.रघुनंदन त्रिवेदी मेरे प्रिय कथाकाराें में से एक रहे हैं ! आज 17 जनवरी उनका जन्म दिवस है।  आम जन जीवन की व्यथा और मन की बारिकियाें काे अपनी कहानियाें में मौलिक ढंग से व्यक्त करने में वे सिद्धहस्त थे। कम उम्र में उनका जाना हिंदी के पाठकों को अखरता है। बहुत पहले कथादेश में उनकी काेई कहानी पढी थी जिसकी धुंधली सी याद मन में है ! आदमी काे अपनी चीजाें से ज्यादा दूसराें की चीजें  अधिक पसंद आती हैं और आदमी का मन खिन्न हाेते रहता है ! आदमी घर बनाता है पर उसे दूसराें के घर अधिक पसंद आते हैं और अपने घर में उसे कमियां नजर आने लगती हैं ! आदमी शादी करता है पर किसी खूबसूरत औरत काे देखकर अपनी पत्नी में उसे कमियां नजर आने लगती हैं ! इस तरह की अनेक मानवीय मन की कमजाेरियाें काे बेहद संजीदा ढंग से कहानीकार पाठकाें के सामने प्रस्तुत करते हैं ! मनुष्य अपने आप से कभी संतुष्ट नहीं रहता, उसे हमेशा लगता है कि दुनियां थाेडी इधर से उधर हाेती ताे कितना अच्छा हाेता !आए दिन लाेग ऐसी मन: स्थितियाें से गुजर रहे हैं , कहानियां भी लाेगाें काे राह दिखाने का काम करती हैं अगर ठीक ढंग से उन पर हम अपना ध्यान केन्...

गजेंद्र रावत की कहानी : उड़न छू

गजेंद्र रावत की कहानी उड़न छू कोरोना काल के उस दहशतजदा माहौल को फिर से आंखों के सामने खींच लाती है जिसे अमूमन हम सभी अपने जीवन में घटित होते देखना नहीं चाहते। अम्मा-रुक्की का जीवन जिसमें एक दंपत्ति के सर्वहारा जीवन के बिंदास लम्हों के साथ साथ एक दहशतजदा संघर्ष भी है वह इस कहानी में दिखाई देता है। कोरोना काल में आम लोगों की पुलिस से लुका छिपी इसलिए भर नहीं होती थी कि वह मार पीट करती थी, बल्कि इसलिए भी होती थी कि वह जेब पर डाका डालने पर भी ऊतारू हो जाती थी। श्रमिक वर्ग में एक तो काम के अभाव में पैसों की तंगी , ऊपर से कहीं मेहनत से दो पैसे किसी तरह मिल जाएं तो रास्ते में पुलिस से उन पैसों को बचाकर घर तक ले आना कोरोना काल की एक बड़ी चुनौती हुआ करती थी। उस चुनौती को अम्मा ने कैसे स्वीकारा, कैसे जूतों में छिपाकर दो हजार रुपये का नोट उसका बच गया , कैसे मौका देखकर वह उड़न छू होकर घर पहुँच गया, सारी कथाएं यहां समाहित हैं।कहानी में एक लय भी है और पठनीयता भी।कहानी का अंत मन में बहुत उहापोह और कौतूहल पैदा करता है। बहरहाल पूरी कहानी का आनंद तो कहानी को पढ़कर ही लिया जा सकता है।       ...

जीवन प्रबंधन को जानना भी क्यों जरूरी है

            जीवन प्रबंधन से जुड़ी सात बातें